परिचय (Introduction)-
विश्व में मक्का के बाद दूसरी सबसे अधिक खेती की जाने वाली फसल गेहूं है, इसकी उपयोगिता को देखते हुए अनाज की फसलों का राजा कहा जाता है।
विश्व में प्रमुख गेहूं उत्पादक देशों में पहला स्थान चीन व दूसरा स्थान भारत का है ।
गेहूं एक मुख्य खाद्यान्न की फसल है जिसका प्रयोग आटा, रोटी ,डबल रोटी, कुकीज, दलिया ,पास्ता, नूडल्स आदि बनाए जाते हैं तथा गेहूं का फर्मेंटेशन या किण्वन करके मादक पेय पदार्थ जैसे शराब ,वोडका, बियर आदि बनाए जाते है।
गेहूं में मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट 62 से 71% तथा प्रोटीन 8 से 15% आदि कई पोषक तत्व पाए जाते हैं| गेहूं में मिलने वाले प्रोटीन को ग्लूटेन कहा जाता है|
गेहूं विश्व के कुल कृषि भूमि के लगभग छठे भाग पर उगाया जाता है|
गेहूं के मड़ाई के बाद दाना निकाल लिया जाता है व बचा अवशेष पशु चारा के रूप में प्रयोग किया जाता है जिसे भूसा कहते हैं|
“ट्रिटीकेल” गेंहू मानव निर्मित धान्य है जिसे भारत से विकसित किया गया है|
गेंहू “caryopsis” प्रकार का फल है इस के दाने को “kernal”कहा जाता है|
गेहूं की उत्पत्ति एवं इतिहास (Origin and history of Wheat)
गेहूं के उत्पत्ति के बारे में अनेक मत हैं क्योंकि गेहूं उत्पत्ति का कोई निश्चित जगह वह समय की सही जानकारी उपलब्ध नहीं है।
पुरातत्व शास्त्रियों के अनुसार ट्रिटीकम जाति के पौधों की खेती लगभग 12000 वर्ष पूर्व आरंभ हुई थी उनके अनुसार गेहूं का प्रयोग 9600 ईसा पूर्व पश्चिम एशिया में हुआ और बाद में गेहूं के अन्य किस्मों की खेती उत्तरी अफ्रीका, यूरोप एवं पूर्वी एशिया में भी आरंभ हो गई कुछ विद्वानों के अनुसार वर्तमान में हो रहे गेहूं की खेती के प्रजनक गेहूं माने जाने वाले जंगली गेहूं और घासो का विवरण यह दर्शाता है कि दक्षिण पूर्व एशिया में गेहूं की उत्पत्ति हुई थी।
भारतवर्ष में भी गेहूं का इतिहास काफी प्राचीन है, यहां पर गेहूं की खेती और उसका प्रयोग कई हजार सालों से हो रहा है मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की पुरातात्विक खुदाई से ज्ञात हुआ कि भारत में गेहूं की खेती लगभग 4500 से 5000 साल पहले भी होती थी जिसका प्रमाण पुरातात्विक खुदाई में मिले लगभग 169 फीट लंबे व 135 फीट चौड़े अनाज भंडार घर में प्राप्त गेहूं के अवशेष से ज्ञात हुआ था और सिंधु घाटी में जो गेहूं के अवशेष मिले वह 300 ईसा पूर्व प्राप्त रोम के गेहूं के अवशेष से भी 2000 वर्ष पूर्व के हैं जिससे विश्व के सभ्यताओं के विकास में हमारे भारत देश के योगदान व महत्व का पता चलता है।
भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से यूपी तथा उत्पादन की दृष्टि से पंजाब प्रथम स्थान पर है
गेहूं वानस्पतिक वर्गीकरण (Botanical classification of Wheat)
गेहूं पादप जगत के “Poales” गण का पौधा है ।—
साधारण नाम– गेहूं
वानस्पतिक नाम–ट्रिटीकम एस्टीवम (triticum aestivum L.)
कुल –पोएसी या ग्रेमिनी
उपकुल–Pooideae
वंश समूह– Triticeae
गेहूं ट्रिटीकम वंश का पौधा है जिसके अंतर्गत लगभग 18 प्रजातियां आती हैं किंतु हमारे देश में आर्थिक रूप से 3 प्रजातियां ही मुख्य हैं-
- Triticum aestivum
- Triticum durum
- Triticum dicoccum
जिसमें Triticum aestivum सबसे महत्वपूर्ण व उपयोगी है।
गेहूं के प्रजातियों को उनके गुणसूत्रों की संख्या के आधार पर निम्न वर्गों में बांटा गया है–
वर्ग गुणसूत्र संख्या
(A) Diploid - T. bioticum – 7
- T. monococcum – 7
(B) Tetraploid - T. dicoccoides -14
- T. dicoccum -14
- T. durum -14
(C) Hexaploid - T. aestivum -21 गेहूं एक स्वपरागण करने वाला, C3 और हेक्सापलॉयड पौधा है।
जलवायु एवं तापमान ( Climate and Temperature )
गेहूं 50 से 60% आद्रता वाली फसल है गेहूं शीतोष्ण जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है गेहूं की खेती शुष्क एवं ठंड जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं गेहूं के बीज जमाव के लिए 20 से 22 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान, कल्ले निकलते समय 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड तथा दाना पकते समय 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सर्वोत्तम होता है।
बुवाई का समय ( Sowing time )
गेहूं रबी ऋतु में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न की फसल है जिसकी बुवाई मुख्य रूप से नवंबर माह से लेकर दिसंबर तक की जाती है जो निम्न वत है—
1- सिंचित क्षेत्र में समय से बुवाई नवंबर के दूसरे सप्ताह से लेकर दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक की जाती है ।
2- सिंचित क्षेत्र में देर से बुवाई का समय 1 दिसंबर से 15 दिसंबर तक का उत्तम रहता है।
3- वर्षा वाले क्षेत्र में समय से बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जाती है ।
4- वर्षा वाले क्षेत्र में देर से बुवाई का समय 15-20 नवंबर से लेकर 15 दिसंबर तक उत्तम रहता है।
बुवाई की विधि, बीज दर एवं बीज उपचार (Sowing method, seed rate and seed treatment)
गेहूं बुवाई की अनेक विधियां हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की हैं ,बुवाई की विधियों के अनुसार बीज दर भी कम या ज्यादा होता है ।
कुछ मुख्य विधियां एवं बीज दर निम्न वत है —
(1)हल के पीछे पंक्तियों में बुवाई -90 से 100 किलोग्राम / हैक्टर
(2) सीडड्रिल से बुवाई- 80-100 किलोग्राम / हैक्टर
(3) डिबलिंग विधि से बुवाई- 30 से 40 किलोग्राम / हैक्टर
(4) छिटकवां विधि से बुवाई – 100 से 120 किलोग्राम / हैक्टर
समय से बुआई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 20 से 23 सेंटीमीटर तथा देर से बुआई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 15 से 18 सेंटीमीटर तथा गहराई 4 से 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
पछेती बुवाई में बीज दर में 20 से 25% की वृद्धि करके बुवाई की जाती है।
बीजोपचार
फसल को रोगों से बचाने और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए बीज का शोधन करना या बीज उपचार करना बहुत ही आवश्यक है ।जिससे हमारी फसल में बीज जनित रोग ना लगे ।
बीज शोधन के लिए 4 से 6 ग्राम ट्राइकोडरमा या 3 ग्राम थायराम या एग्रोसन जी.एन. या केप्टान या विटावेक्स प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए।
गेहूं के मुख्य प्रजातियां (Main varieties of wheat)
गेहूं की प्रजातियों को बुवाई के समय व उनकी उपयोगिता के आधार पर बांटा गया है।
1- सिंचित क्षेत्रों में समय से बुआई के लिए सोनालिका, यूपी 368, यूपी 262, एच डी 2967, 2329, 2204, 2428, 2285, WL-711, राज 1555, राज 911, के 7410, के 9107, कल्याणसोना, सुजाता, रतन, lok-1 आदि मुख्य प्रजातियां हैं।
2- सिंचित क्षेत्रों में देर से बुवाई के लिए lok-1, स्वाति, जी डब्ल्यू 173, जयराज 1555, मेघदूत, सोनालिका (आर आर वन), एचडी 2428, एचडी 2270, एचडी 2285, एचडी 3086, एचपी 1209, यूपी 115, यूपी 1109 आदि मुख्य प्रजातियां हैं।
3- असिंचित क्षेत्रों के लिए बुवाई की C-306, के 8027,के 65, के 68, VL- 401, VL- 404, H.P.1493,W.H. 226, PBW-65, 175, सुजाता, मेघदूत, मुक्ता, कुंदन आदि कुछ मुख्य प्रजातियां हैं।
इसके अतिरिक्त पीबीडब्ल्यू 373, पीबीडब्ल्यू 343, पीबीडब्ल्यू 502, पीबीडब्ल्यू 550, पीबीडब्ल्यू 154, एचडी 2967, एचडी 3086, एचडी 2285, पीबीडब्ल्यू 226, कुंदन श्रीराम सुपर 303, श्रीराम 231 अच्छे उत्पादन की कुछ अन्य प्रजातियां भी हैं।
गेहूं में सिंचाई प्रबंधन ( Irrigation Management in Wheat)
गेहूं में सिंचाई फसल मांग की आवश्यकता अनुसार की जानी चाहिए अलग-अलग मौसम मृदा व प्रजाति के अनुसार कम या ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
गेहूं की खेती के जीवन चक्र के अनुसार 45 से 65 सेंटीमीटर जल की आवश्यकता होती है।
1- बौने गेहूं के प्रजाति के लिए 30 से 60 सेंटीमीटर ,देसी गेहूं के प्रजाति के लिए 15 से 20 सेंटीमीटर जल की आवश्यकता होती है।
2- हल्की मिट्टी में पांच सिंचाई प्रत्येक 5 सेंटीमीटर तथा भारी मृदा में चार सिंचाई प्रदेश 6 सेंटीमीटर की सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
भारत में गेहूं सिंचित क्षेत्रफल लगभग 85% है ।
गेहूं की खेती में विभिन्न क्रान्तिक अवस्थाओं में 5-6 सिंचाई की आवश्यकता होती है
गेहूं सिंचाई प्रबंधन सारणी ( Wheat Irrigation Management Table)
क्रमांक | सिंचाई | क्रांतिक अवस्था (Critical stage) | बुवाई के कितने दिन पर ( Days after sowing ) |
1 | पहली | ताजमूल अवस्था (Crown state initiation) | 20-25 दिन |
2 | दूसरी | कल्ले निकलते समय ( Tillering Stage ) | 40-45 दिन |
3 | तीसरी | गांठ बनते समय (Jointing stage ) | 60-65 दिन |
4 | चौथी | फूल निकलने कि अवस्था (Flowering stage) | 80-85 दिन |
5 | पांचवी | दुग्धावस्था ( Milk development stage) | 100 – 115 दिन |
6 | छठी | दाना सख्त पड़ते समय ( Grain filling or dough stage | 115- 125 दिन |
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन ( Manure and Fertilizer Management)
किसी भी फसल के समुचित विकास वृद्धि एवं गुणवत्ता युक्त अधिक उत्पादन लेने हेतु उन्हें दिए जाने वाले पोषक तत्व खाद या उर्वरक का बहुत महत्व होता है। गेहूं में मुख्य रूप से नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटाश का प्रयोग किया जाता है ।-
सिंचित क्षेत्रों में समय से बुवाई करने पर एनपीके 120:60:40 तथा देरी से बुवाई करने पर 80-100:60:30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल किया जाता है।
असिंचित क्षेत्र में 30:20:10 तथा अर्थ सिंचित क्षेत्र में 60:40:20 किलोग्राम एनपीके प्रति हेक्टेयर प्रयोग किया जाता है।
सिंचित क्षेत्रों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा दो बार में प्रयोग करने पर अच्छा लाभ मिलता है।
गेहूं की खेती में एनपीके के अतिरिक्त गोबर की खाद केंचुए की खाद जैविक खादों का प्रयोग करना चाहिए जिससे खेत की मिट्टी का C:N अनुपात अच्छा बना रहे।
इसके अतिरिक्त मिश्रित सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग 10 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर अवश्य करना चाहिए।
फसल सुरक्षा (Crop Protection )
A– प्रमुख कीट –गेहूं की फसल में दीमक, गुजिया गुजिया बीविल, माहू आदि का प्रकोप होता है जिसके नियंत्रण के लिए बुवाई से पहले दीमक नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरीफास 20% ईसी या थायोमेथाक्साम 30% एफ एस की 3ml मात्रा प्रति किलोग्राम बीज के दर से बीज को शोधित करना चाहिए ।
B– खड़ी फसल में दीमक के नियंत्रण के लिए क्लोरोपायरीफास 20% ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग कर सकते हैं इसके अतिरिक्त फिपरोनिल 0.3% 10 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए।
C– माहू कीट के नियंत्रण हेतु थायोमेथाक्साम 25% डब्लू जी 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर 700 से 750 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए इसके अतिरिक्त डाईमेथोएट 30% ईसी 750-1000ml, 450-450 लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए।
नीम के तेल का भी प्रयोग माहू नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।
गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोग व नियंत्रण (Major diseases and controls in wheat )
1-धारीदार रतवा या पीला रतुआ रोग
तराई क्षेत्रों में या अधिक नमी रहने पर इस रोग की संभावना बढ़ जाती है इसका प्रकोप जनवरी व फरवरी माह में ज्यादा होने की संभावना रहती है पत्तियों के धारियों पर पीले रंग का फफूंद पाउडर के रूप में रहता है जिसे हाथ लगाने पर हाथ पर रंग की तरह चिपक जाता है या पाउडर जमीन पर गिरा हुआ देखा जा सकता है।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण के लिए प्रोपिकोनाजोल 25% ईसी 500 से 600 मिलीलीटर दवा 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रयोग करना चाहिए।
2- गेहूं का पर्ण या भूरा रतुआ रोग
इस रोग की शुरुआत में नारंगी रंग या भूरे रंग के अत्यंत सूक्ष्म बिंदु के रूप में पत्तियों पर दिखाई देते हैं तथा बाद में धीरे-धीरे धब्बे बड़े हो जाते हैं और प्रकाश संश्लेषण में अवरोध उत्पन्न करते हैं जिससे पौधे का समुचित विकास न होने के कारण उत्पादन प्रभावित होता है ।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु 0.1% प्रोपिकोनाजोल का एक दो बार स्प्रे करना चाहिए।
3- गेहूं का करनाल बंट रोग
यह रोग अधिक तापमान तथा उष्ण जलवायु वाले राज्यों के अपेक्षाकृत ठंडे प्रदेशों के क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है यह मृदा जनित रोग है इस रोग में दानों के अंदर काला चूर्ण बन जाता है तथा अंकुरण क्षमता कम हो जाती है।
नियंत्रण–इसके नियंत्रण के लिए थाइराम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए खड़ी फसल में प्रोपिकोनाजोल 25% ईसी 0.1 घोल का छिड़काव करना चाहिए।
4- खुला कण्डुवा अथवा लूज स्मट रोग
यह बीज जनित रोग है इसके लक्षण बाली आने पर ही दिखाई देते हैं संक्रमित पौधों की बालियों में दानों की जगह रोगजनक के रोगकंड काले चूर्ण के रूप में पाया जाता है जो हवा के माध्यम से अन्य बालियों या खेतों को संक्रमित कर देता है ।
नियंत्रण- इसके लिए बीजोपचार अत्यंत आवश्यक है, प्रति किलोग्राम बीज को कार्बोक्सिन 75% डब्ल्यूपी 1:5 ग्राम या कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी 1 ग्राम या टेबुकोनाजोल 2 ग्राम की दर से बीज शोधन करना चाहिए।
5- लीफब्लाइट या पर्ण झुलसा रोग
इसका प्रकोप गर्म एवं नम जलवायु वाले उत्तर पूर्व के क्षेत्रों में अधिक होता है यह रोग पत्तियों पर भूरे रंग के नाव के आकार में छोटे-छोटे धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं व धीरे-धीरे पूरे पौधों में फैल कर पौधों को झुलसा देते हैं जिससे ऊतक मरने के कारण हरा रंग नष्ट हो जाता है जिससे प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है।
नियंत्रण -बीज उपचार अवश्य करना चाहिए खड़ी फसल में 1200-1300 ग्राम मैंकोजेब को 5000 से 6000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर 15 दिन के अंतराल पर तीन से चार छिड़काव करना चाहिए ।
खरपतवार नियंत्रण ( Weed Control )
गेहूं में उगने वाले मुख्य खरपतवार गेहूं का मामा (phalaris minor) या गुल्ली डंडा या मंडूसी और जंगली बथुआ हैं इसके अतिरिक्त हिरनखुरी, मोथा, कृष्णनील, सत्यानाशी, जंगली जई, अकरी,सेंजी, जंगली पालक, जंगली बथुआ आदि है।
नियंत्रण- बुवाई के तुरंत बाद पेन्डीमिथेलिन लगभग 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर स्प्रे करना चाहिए। जिससे खरपतवार एक अवधि तक नहीं उगते हैं ।
चौड़ी पत्ती वाले एवं सकरी पत्ती वाले खरपतवार के लिए मेट्रिब्यूज़ीन 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 30 दिन बाद स्प्रे करना चाहिए।
चौड़ी पत्ती के खरपतवार के नियंत्रण के लिए 24D, 0.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए ।सकरी पति के खरपतवार के लिए आइसोप्रोट्यूरान या क्लोडिनाफाप-प्रोपारजिल 15%WP का प्रयोग करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त चौड़ी पत्ती एवं सकरी पत्ती वाले खरपतवार का एक साथ नियंत्रण के लिए ब्रॉडवे दवा का प्रयोग करना चाहिए।
कटाई एवं उपज (Harvesting and Yield )
जब गेहूं के दाने पक जाए तब गेहूं की कटाई करनी चाहिए तथा मड़ाई करनी चाहिए मौसम को देखते हुए समय से भंडारण आदि का कार्य कर लेना चाहिए ।
गेहूं की अच्छी खेती करने पर गेहूं दाना लगभग 45 से 55 कुंतल तथा भूसा लगभग 40 से 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है
Author
अमित कुमार तिवारी
(कृषि विशेषज्ञ)
एग्री क्लिनिक एंड एग्री बिज़नेस सेंटर ,
पता – आदर्श नगर , बशहा चौराहा, लखनऊ – अयोध्या राजमार्ग – जनपद अयोध्या -224126
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